Let the pages of this diary take you through the deep and beautiful corridors of the Musical Poet's heart, mind and beyond...
Monday, December 23, 2019
Dekhne ki gunzaish nahi hai - देखने की गुंजाइश नहीं है!
Sunday, December 8, 2019
just there
Tuesday, November 12, 2019
Sei Din - সেই দিন
Monday, November 11, 2019
Nijer Thekeo Boro Ek Obhiggota নিজের থেকেও বড় এক অভিজ্ঞতা
Thursday, October 24, 2019
An overwhelming experience
In that big bunch of time,
seeming arduous, unending
at times, where I
prepared myself for this day,
never did cross my mind,
this thought of - if and how -
when I would finally stand!
By short-sightedness, was limited,
my perception, by closed-ness my feel,
that when ventured for the
first time, out of the cocoon
into the world, dumbstruck was I,
by a process so immense,
an experience so enormous!
As time unfolded itself,
by seconds, minutes and hours,
I saw in awe, pondering
over the whole process,
unfathomable it seemed.
Trembled I in fear, if I'm worthy,
if I could do justice, and as
my mind tried its own tricks,
before my eyes I saw magic!
Fumbled at the first instance,
fearing falling from grace,
unable to contain the compulsive
fluctuations of my mind,
worried I looked out,
then within, and
then to Sadhguru!
However harder I tried,
it didn't work, but the moment
I took a breath, and relaxed,
it happened!
The meaning of the words,
having listened so many times,
taken to have grasped,
came to me so deeply!
As long as I was, it didn't.
The moment I wasn't, it did!
The incredible magic I saw
happening all by itself,
as I stood knowing my foolishness,
the enormity of the process, and
the omnipresence of the sacred
touched me, left me wet with overwhelming-ness!
From the unsurety of "I can't do it",
to being soaked in his presence,
taken over by something else altogether,
realised I that it's not my doing,
nothing can I do, but just be,
simply relaxing into the lap of grace!
As the time of culmination came,
as I stepped out enthralled, dazed,
immensely drenched with experience,
the body started to shiver,
and tears clogged my eyes,
what more could I ever ask?
I cried out! And it came so strongly -
the wish to dissolve into!
--Nayan
Thu, 24th October 2019
On bus, way from Bangalore to Isha Yoga Centre Coimbatore
(A version of this poem in Bangla can be read at http://musical-poet.blogspot.com/2019/11/nijer-thekeo-boro-ek-obhiggota.html )
Monday, September 9, 2019
মাই হার্ট বিটস ফর কাবেরী! My heart beats for Cauvery #CauveryCalling
আবেগ ভরা কণ্ঠ ওনার,
"এগিয়ে এসো, আর করো না দেরি"!
মৃত্যু শয্যায় মা যে মোদের,
"মাই হার্ট বিটস ফর কাবেরী"!
শুনে ওনার এই আওহান,
ঝাঁপিয়ে পড়ে বৃদ্ধ ও জোয়ান,
দিয়ে সাড়া শিশু, তরুণ, তরুণী,
ঢেলে দেয় তারা প্রাণ!
বহু কাল ধরে বইছে এ জল,
জীবন দায়িনি স্নিগ্ধ শীতল,
যার ছায়ায় হলাম বড়, দিলাম
তারই কোলে মরণ খাঁড়া!
একি হায়! কর্তব্য ভুলে,
দিলাম আঘাত জীবনের মূলে!
ডাকে যে কাবেরী মা,
হৃদয় আছে কি তোমার শোনার?
সে যে ডাক দিয়েছে কোন সকালে,
বেহুঁশ মোরা, ঘনিয়ে যে সন্ধ্যে এলো!
জেগে ওঠো, দাও যোগ, কাবেরীকে
বাঁচাতেই হবে, এবার তো খোলো চোখ!
এক দিনের প্রেম নয়,
এ বারো বছরের পণ!
আমার সঙ্গে থাকো, ধরো হাত,
লাগাই আমার শেষ জীবন!
বলে চলেন উনি, কাবেরীর প্রতি
জীবনের সকল কর্ম ঢালো দেখি,
মেয়ে শিশু জন্মালে তোমাদের ঘরে,
কথা দাও, ডাকবে তাকে কাবেরী!
নয়ন,
সোম, ৯ সেপ্টেম্বর, ২০১৯
কোয়েম্বাটোর
আমি কী করে একটি নদীকে বাঁচাতে পারি?
তরুণ, তরুণী, শিশু ও বৃদ্ধ, সকলে এগিয়ে আসছেন...
আপনি কার অপেক্ষায় আছেন?
কবেরিকে বাঁচাতে সঙ্গে আসুন।
এই লিংকে নিজের অভিযান শুরু করুন।
cauverycalling.org
Visit cauverycalling.org and support the planting of trees.
Either Donate trees or Become a Fundraiser and reach out to your friends and family for Saving Cauvery river!
Sunday, September 8, 2019
क्या देख रहा हूं मैं! What am I witnessing! #CauveryCalling
मूसलाधार गिरती है बारिश,
हवाएं तेज हैं बह रहीं,
भीग उसमे चलता जाता
हौसलों से बुलंद एक दल,
और आगे चलता एक इंसान!
क्या देख रहा हूं मैं!
नदी बहे, देश न लड़े,
खुशहाल हो जन - जन,
किसान का जीवन हो आसान।
रुक न सकते, हो रही है देर -
कहते हैं वो, फिर निकल पड़ते!
क्या देख रहा हूं मैं!
एक दिन का प्यार नहीं,
ये बारह साल का संकल्प है!
लगे रहो, मेरे साथ रहो -
लोगों को, सरकारों को
वो याद बार - बार दिलाते हैं !
क्या देख रहा हूं मैं!
गोद में जिसकी खेला था मैं,
बड़ा हुआ जिसकी आंचल में,
तड़प रही वो हम से ही आज!
देखो - देखो वो मर रही!
पुकार रही है कावेरी मैया,
दिल है हममें सुनने को?
ये और विकल्प नहीं,
आन पड़ी जरूरत है अब।
आने वाली पीढ़ियों को
कैसा जीवन देंगे हम -
हल का हिस्सा बनने को वो कहते!
क्या देख रहा हूं मैं!
कावेरी मां को देंगे नई जान
लगाता हूं दाव पे शेष जीवन!
मांगे वो हमारा जीवन कर्म!
बच्चे, बूढ़े और जवान -
जुड़ते जाते उनकी पुकार पे!
क्या देख रहा हूं मैं!
नयन,
८ सितम्बर २०१९
सुबह ६:१०
बेंगलुरु
मैं एक नदी को कैसे बचा सकता हूं ?
बच्चे, बूढ़े और जवान आगे आ रहे हैं...
आप किसका इंतज़ार कर रहे है?
कावेरी को बचाने के लिए साथ आइए
इस लिंक पर स्वयं का अभियान शुरू कीजिए।
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Friday, June 14, 2019
sach me tap gayi hai dharti
सच में, तप गई है धरती
सुलगती हवा सीने को चीड़
उठती है ऊपर, आग सा गरम।
झुलसती चेहरे की सुखीं पलकें भी
जैसे बचा न पाती हैं आंखों को।
गिने चुने पेड़ों की मुरझाईं पत्तियां भी
हरियाली से बेआब्रू मिट्टी को
सुकून नहीं दे पाती है, आज
कहीं दिखती नहीं बारिश की आस -
सच में, तप गई है धरती।
जो बोल पातें हैं हम, फिर भी
कराहती आहों की आवाज़
नहीं पहुंच पाती है हमारी
सोती अंतरात्मा तक,
बीच में ही कहीं सुख कर
रह जाती है, उन अगनित
नदियों की तरह, जो आज
रेतीली राह बन रह गईं है सिर्फ,
पानी की परछाई से भी दूर।
फिर बेबाक जीवों की कहानी
क्या बयां करें? हम अपनी ही
नहीं सुनते, उनकी क्या सुनेंगे भला?
जीवन तो जीवन है बस, हो
चाहे इंसान, पशु, पक्षी या पेड़,
पर हमारी सिर्फ और पाने की
होड़ ने आज उजाड़ दिया है चमन,
हर एक जान, एक एक बूंद जीवन
के लिए हो गई है मोहताज।
आज अलकतरे की सड़कों से,
गिट्टियों से, सीमेंट-इमारतों से,
ज्वालामुखी के अंगारें निकलते हैं,
जहां भी जीवन धधक रहा, वह
छांव की खोज में तड़पता है।
हरियाली की चिता पर आज
हमने भट्टियां बना कर रक्खा है!
क्या ठंडे पानी, हवा व छांव के
अभाव का अब भी आभास न होता है?
नयन
१४ जून, २०१९, शुक्रवार
पटना हावड़ा जन शताब्दी
(भीषण गर्मी में)
(चित्र यहां से अभार सहित गृहित है - https://www.google.com/amp/s/www.nytimes.com/2019/06/13/world/asia/india-heat-wave-deaths.amp.html)
Sunday, June 9, 2019
सागर में ढूंढ़ रहे हम
सागर में ढूंढ़ रहे हम
अफसानों के सीपों को,
गोता खाने से कतरा रहे फिर भी
भीग न जाए कहीं तन जो।
हम में तुम में बात अलग है,
इतनी सी से लड़ लें क्या हम?
अंदर बहता जो धुन इकतारा,
अनसुने दिल को कभी सून लो न!
भगदड़ वाला जी है हमारा,
सहे न एक पल का भी थमना।
हर की हरकत, सभी की बातें,
उफान लेे आता है मन में।
सुलगती चिंगारी और धधकती आग में
फासला नहीं ज्यादा कुछ होता,
(जली) राख को ढाखने की (दिखावटी) कोशिश में
भूल जाते हैं - चिंगारी न आने देना ही था आसान।
जीते जी मर मर कर हम
ढूंढते हैं सपनों में जीवन,
हर पल नया, हर सांस नई, पर
न देखने की कसम खाता जन जन।
कैसे निकलें इस अंधी धुन से,
सच की शिखा को थामे कैसे,
जलाएं कैसे मन मंदिर में ज्योति ?
हर पल जो धधकता है डर दिल में।
- नयन
८ जून, २०१९, रविबार
पटना/कोयंबत्तूर
পিছু না নিয়ে আর পারলাম না
জানি যে কষ্ট হবে, না পেরে ওঠার
শঙ্কাও ছিল মনে, কিন্তু কী করি -
বাঁসিওয়ালা এমন ধুন বাজালে যে,
পিছু না নিয়ে যে আর পারলাম না !
তোমার চোখের নিরব নৈঃশব্দ,
তোমার হৃদয়ের উচ্ছ্বাসের সাথে
মিশে এক হয়ে আছে, এখানকার
তোমার প্রতিটি পায়ের ছাপে!
বিভীষিকায় বাঁধা মানুষ প্রাণে
লাগে যেই তোমার কৃপার ছোঁয়া,
হালকা হাওয়ায় যায় খুলে জট,
মিলিয়ে মনের ভারী ধোঁয়া।
তাই নিই পিছু তোমারই আজ,
হাসি ফোটাতে মুখে মুখে,
ডাকে - তুমি শুরু করেছ যে কাজ,
পারিনা পারিনা নিজেকে থামাতে।
তাই তোমাকেই দেখি যেন
প্রতিটি শ্বাসে, প্রতি পলে,
যে পথ দেখালে তুমি হাত ধরে,
ভরসা তুমিই, তুমিই সম্বল।
তাই মানুষের মাঝে হই যেন তুমিই,
হারিয়ে নিজেকে তোমার মাঝে,
জাদুকর তাই তোমার তানে আজ
মাতিয়ে তোলো অন্তহীন সাজে!
- নয়ন
৯ জুন, ২০১৯, রবিবার
পাটনা/কোয়েম্বাটোর
Sunday, May 26, 2019
अनंत अफ़सोसों की माला
अनंत अफ़सोसों की माला
मिट्टी का फूटा घड़ा लिए
मैं पानी भरने जाती हूं,
सोचती हूं कि मेहनत का
साकार हुआ होगा फल,
पर देखती हूं फूटे छेदों से
बह गया है सारा जल!
तकिये में हुए छेदों को मैं
सर के नीचे रख सोती हूं,
छुपाए न छुपे, छेदों से
रुई निकल उड़ जाते हैं,
सर को साफ रखने की कोशिश में
सर मैला हो जाता है।
तुम तो एक ही रहते हो पर,
तुम्हारा रूप बदल बदल जाता है।
सोचती हूं मौसम का खेल होगा
(और) सूरज पर भी शक जाता है,
मुझको धरने वाली धरती से पर,
नज़र दूर खड़ी रहती है।
बदलती छवि के धुओं में मैं
ढूंढती फिरती हूं दुआओं को,
बहती नदी में तैरूं ना पर, मैं
(किनारे) बैठ गिनती हूं सीपों को।
इस पल के मौके को क्यूं दूर
बहने देती हूं समय की नाव में?
मिट्टी को छू लेने की ललक
मन की ही है - मट मेले होने को,
पर खुद को किसी और में
खो देने के डर की झिझक
इतनी है कि, इतना पास आकर भी
बार बार कश्ती को दूर बहने देती हूं।
नयन
१४ अप्रैल, २०१९
कोयंबटूर
Tuesday, April 16, 2019
বিলিয়ে দিলেন সব তিনি
বিলিয়ে দিলেন সব তিনি
এক পলকের নিমিষে,
যা ছিল সবকিছু তার
শুধু একটি শ্বাসে ।
যা সব অজানা, হবে
জানা এক নাগালে,
সাগরে শান্ত জাহাজ,
স্তব্ধ হাওয়ার পালে।
পথিক যে চুপি চুপি আসে -
বারে বারে গেলেন বলে,
শান্ত শুধু হতে হবে তোকে,
সে যে দেখা দিয়ে চলে ।
এই হল সেই আসল মানিক,
ছেড়ে তুই খুঁজিস কারে ?
যাবে যে নিয়ে সঙ্গ ডোরে
জনম মরণের পারে ।
চক্ষু দুটির পারে চাওয়া,
মনের অন্তরে যাওয়া,
নিজেকে হারিয়ে তবেই
নিজেকে খুঁজে পাওয়া।
-- নয়ন
মার্চ - এপ্রিল, ২০১৯