Nayan | WritersCafe.org

Friday, October 25, 2013

Dil Ki Khoj



दिल की ख़ोज

मेरे पास भी दिल था!
और मुझे कभी
पता ही था!

हमेशा उन्मुक्त गगन के
पंक्षी की तरह
सोचा था मैंने -
खुद को!
अनवरत बहती नदियों की तरह,
बँधे लहरों की तरह,
आकंक्षायों और अपेक्षायों -
से आज़ाद!

लुभाती इस मुक्ति के लिए,
जाने कब
मिटा दिया था मैंने -
अपनी भावना को!
और इस दौर में,
खुद ही में पूर्ण -
होने की होड़ में,
जो न हो किसी का
आभाव, जरुरत!
अकेले चलने की मुझको -
लग गई थी लत!

फिर, किसी ने हिला दिया,
गर्वित सड़क से गिरा दिया!
पहली बार चाहा मैंने
किसी और को -
खुद से ज्यादा!
पर तब भी कहाँ पता था -
कि ये सब कारनामा
मेरे दिल का ही था!
बहता चला गया था मैं -
नदी के बहाव की तरह,
काग़ज की नाव की तरह!

अच्छा लगा, और
चलता रहा मैं -
भुत, भविष्य और भाग्य
को भूल, अलमस्त!
तब कहाँ पता था -
कि वह दीपक जल रहा
मदमस्त हो इतना -
कि उसे होना था अस्त!

सुनामी में उखड़े बृक्ष की तरह,
बहाव में बिखड़े (भू)तल की तरह,
कंपन में गिरते -
अनियमित प्रगति की -
नीव की तरह,
जब टुटा मेरा भी सपना!
दुःख से सहमता, अपना -
वह दिल ही तो था, घायल -
पहन भाग्य और
समाज का पायल!

मेरे पास भी दिल था!
और पता मुझे आज चला!
जब देखा उसे टूटे टुकड़ों में,
मैं विचलित और विकल!
देखता रहा बहते सपने को,
खंडित उस पात्र से निकल!

सपना तो बह गया,
रख अपनी परछाई छोड़,
हर हिस्से में प्रति अपनी!
मैं देखूँ किस ओर?
चल दोस्त, अब घर चलें,
समेटना इनको सहज नहीं!
अनजान ही बेहतर था मैं,
दिल के अस्तित्व
के सत्य से!
नयन
7:10 am, Wed 5th Sep 2013
Malaysian Township
Hyderabad, India
© Bhaskar Jyoti Ghosh [Google+, FB]

Sunday, October 20, 2013

Bondhutter Aabhar



I offer my gratitude to the great poet Kaviguru RabindraNath Tagore through this poem-story of mine. I was not school educated in Bengali language and literature, having been born and brought up outside Bengal. But bengali literature had pulled me into its fold, where RabindraNath and Nazrul had the greatest impact. I grew up reading and reciting these two books in my hands - RabindraNath's Sanchaita, and Nazrul's Sanchita. It was a lonely journey without any like minded friends or like-language-d friends; my bengali poem writing style remained with these olden poets'. Anyways that's how it is, and with finally having moved into English, bengali and hindi writings have been very rare or confined now for me. But they give the most immense joy when I get blessed enough to pen one in bangla! :)

This poem-story speaks of a foreigner who lands up in a new village. He gets a friend in there who gives him shelter. Years later, as the story unfolds, the foreigner gets corrupt, and is to be punished severely for his misdeeds. The title of the poem reads "Bondhutter Aabhar", which means 'Friend's Gift or Gratitude'. Please read on... 
 

বন্ধুত্বের আভার

এক বিদেশী আসে
কোন এক নতুন গ্রাম দেশে
দেখা দেয় তারে সবুজ পথে
লোক জড়ো কত হয়েছে নিমেশে

নতুন লোক! নতুন দেহ!
নতুন গলা! ভিন দেশী কেহ?
কৌতুহল যত, কলরব তত -
বিদেশী ভাবে, মুশকিল কত!

হাত বাড়িয়ে, টেনে নিল কাছে|
(
বলল) চল তুমি, গৃহ  মর পাশে
অজানা দুটি মানুষ যবে চলল একপথে -
বন্ধুত্বের কুসুম মেলিল প্রকাশে!

        *  *  *
কিছু দিন গেছে কেটে সেই দিন হতে -
নতুন কাজ রপ্ত করেছে সে দিবা-রাত্রির স্রোতে|
টাকা-কড়ি, গাড়ি-ঘোড়া, সব জমেছে প্রচুর!
চাপরাশী গণ সবে, বলে, 'জি-হজুর! জি-হজুর!'

ধীরে-ধীরে এই ভাবে চলল যে সময় -
বিদেশীর মনে থেকে হলো সততার ক্ষয়
কুটিল কণনার ছক কষে, সে চতুর, নির্ভয়
দেকে আনল ওপরে নিজের, সে চরম বিপর্যয়!

বন্ধুত্বের অপমানে, বিদেশীর ঘিরে এল কালো ক্ষণ
মন্ত্রীর আদেশ হল, 'ধরে আন! ধরে আন!'
গরিব মানুষের রক্ত রঞ্জিত যে পবিত্র ধন
ছকের দৌলতে লুট করে খায় কে সে শয়তান?

এত দিন সেই বন্ধুটির হয়েছে উন্নতি
নগরপালের ভূমিকায় অর্জিত করেছে সে খ্যাতি
মন্ত্রীর আদেশ এল, 'দিতে হবে ফাঁসি!'
কর্তব্যের বেদিতে কেমনে দেবে সে বন্ধুর আহুতি?

সাতে-পাঁচে ছিল যারা, পড়ল সকলেই ধরা
জীবনের ওপরে তাদের দুলল রক্তাক্ত খাঁড়া!
নগরপালের দ্বিধা - চাই একজন বন্ধুর স্থানে
কর্তব্য করিবে সে ত্যাগ, কভু ভাবেবি সে মনে!

বিদেশির কয়, ভয় পাসনি তুই ভাই
তিন দিনে উপায় কিছু বার করবই বিস্তর
'
বন্ধু আমার নগরপাল', বিদেশী নিশ্চিন্তে তাই
গুনে যায় দিন, কেটে যায় প্রহরের পর প্রহর!

দুশ্চিন্তায় নত, সে কর্তব্যের ভারে
কেমনে দেবে সে বন্ধুরে বলিদান করে?
স্তম্ভিত বিচার আর কম্পিত স্বরে -
স্মরণ করে সে অদৃশ্য দেবতারে!

মিথ্যা অভিযোগে যারে ধরে আনে বলে -
মনের অন্তরে ধিক্কার, দ্বন্দ হয়ে চলে!
তবে শিগগিরই একপথ, নিশ্চিত করতেই হবে আজ -
রক্ত চায় ন্যায়ের খড়গ, নিয়ে রাত্রির সাজ!

           *   *   *
ভোর হল নিয়ে আলো, খুলল কারাগারের দ্বার
বিদেশী ছুটল, স্তব্ধ শহরে, দিতে বন্ধুত্বের আভার!
থেমে গেল গতি, লোক-জন অতি, চলিছে না কেহ -
প্রাণহীন, নিঃশব্দে, ফাঁসিতে ঝুলিছে নগরপালের দেহ!

Nayan
17th Nov’ 2010
2:50 am (night)
Madhapur flat,
Hyderabad, India

© Bhaskar Jyoti Ghosh [Google+, FB]