सच में, तप गई है धरती
सुलगती हवा सीने को चीड़
उठती है ऊपर, आग सा गरम।
झुलसती चेहरे की सुखीं पलकें भी
जैसे बचा न पाती हैं आंखों को।
गिने चुने पेड़ों की मुरझाईं पत्तियां भी
हरियाली से बेआब्रू मिट्टी को
सुकून नहीं दे पाती है, आज
कहीं दिखती नहीं बारिश की आस -
सच में, तप गई है धरती।
जो बोल पातें हैं हम, फिर भी
कराहती आहों की आवाज़
नहीं पहुंच पाती है हमारी
सोती अंतरात्मा तक,
बीच में ही कहीं सुख कर
रह जाती है, उन अगनित
नदियों की तरह, जो आज
रेतीली राह बन रह गईं है सिर्फ,
पानी की परछाई से भी दूर।
फिर बेबाक जीवों की कहानी
क्या बयां करें? हम अपनी ही
नहीं सुनते, उनकी क्या सुनेंगे भला?
जीवन तो जीवन है बस, हो
चाहे इंसान, पशु, पक्षी या पेड़,
पर हमारी सिर्फ और पाने की
होड़ ने आज उजाड़ दिया है चमन,
हर एक जान, एक एक बूंद जीवन
के लिए हो गई है मोहताज।
आज अलकतरे की सड़कों से,
गिट्टियों से, सीमेंट-इमारतों से,
ज्वालामुखी के अंगारें निकलते हैं,
जहां भी जीवन धधक रहा, वह
छांव की खोज में तड़पता है।
हरियाली की चिता पर आज
हमने भट्टियां बना कर रक्खा है!
क्या ठंडे पानी, हवा व छांव के
अभाव का अब भी आभास न होता है?
नयन
१४ जून, २०१९, शुक्रवार
पटना हावड़ा जन शताब्दी
(भीषण गर्मी में)
(चित्र यहां से अभार सहित गृहित है - https://www.google.com/amp/s/www.nytimes.com/2019/06/13/world/asia/india-heat-wave-deaths.amp.html)
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