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Saturday, July 27, 2013

Antardwand - Lakshya



अंतर्द्वंद : लक्ष्य


और क्या मांगू इस जग से?
दिया है प्राण,
दिखाया है रास्ता!
और क्या मांगू इस जग से?


स्वागत करूँ कैसे मैं -
स्वर्ग-सुख का?
जब बंधू मेरे -
सड़तें हों नरक-अनल में!


जीवन-प्रदीप बुझता नहीं,
इतनी
आसानी से कभी!

देखा
है क्या बृक्ष को कभी?

काट दो, तो बड़ उठता है तभी!


स्वर्ग-पथिक पूछे नहीं,
नरक-पथिक रूठे नहीं,
ये
रास्ते जहाँ पे मिल जाएं!

वहीं अपना सपना हो!


आत्म-दीप से अचिंतित -
जो
जले, बुझे वहां!

विलीन
हो, आलोकित हो -

एक
अचिन्त्य प्रकाश बिम्ब में जहाँ!


जीवन अनिश्चयता का आलय,
धान्य
-धरा, तो कभी प्रखर प्रलय!

अभिशप्त
या पुरस्कृत - यह विकट विषय,

चलते
रहना ही एकमात्र, है आशय!


रगों में रक्त, भुजों में बल,
कंठ
में स्वर, मन में संबल!

ललाट
पर तेज, नयन में ज्योति!

बिपत्ति
देख, चेतना तू क्यों रोती?


सुधीर दिगंत, पर चौदिक चपल!
स्थीर
डग, पर हो उत्सुक हर पल!

पथ
है प्रचंड, प्रकाश नम,

लक्ष्य
के प्रति, हो आशा कम!


खोए पथिक को मनाना नहीं!
सोए
ह्रदय को जगाना नहीं!

फेंक
नियमों का यह निर्मम जाल -

तू
क्यूँ परिवर्तित करे अपनी चाल?


सड़क एक है, मंदिर की मात्र!
विषमताओं
में, बन धैर्य-पात्र!

अनल-सुधा में तप्त तू,
(हुआस्वर्ण-भुजाओं से रप्त तू!


हाँ!
और
क्या मांगू इस जग से?

दिया
है चेतन,

दिखाया है रास्ता!
और
मांगू इस जग से!

 
सपना तो था मेरा ही!
चलते रहने को ले सहारा -
बढूँ
आगे, अब बढूँ आगे!

जोड़ना
है, सब टूटे धागें!
नयन 
11:30 pm, 6th Sep 2012
9:30 am, 25th Jun 2013
Malaysian Township,
Hyderabad, India
© Bhaskar Jyoti Ghosh [Google+, FB]

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