तो बड़ी ध्यान से चलें,
कोमलता से चलें,
ताकि धरती मां की
धड़कनों का अहसास
हो हर पल, हमें!
मिट्टी मां की रगों में
भी तो बहता है खून,
वह जीवन देती अमृत,
जिससे खिल उठती हैं जिंदगियां,
पेड़- पौधें, पशु - पक्षी
और हम, इंसान!
पहाड़, बादल, झरने व नदियां,
आसमान, समंदर व सूरज की किरणें,
किन - किन रूपों में
साथ देती प्रकृति मैया से
मुलाकात होती है हमारी!
रेंगते कीट और उड़ती तितली,
तैरती मछली और दौड़ती हिरण में,
और इन सभी को कर पाने वाले इंसानों में,
क्या कोई बड़ा, क्या कोई छोटा है?
इन बेवकूफियों को माने कैसे?
अचल पेड़ों में भी तो पनपता है जीवन!
चलते समय के साथ बदलता है रूप - रंग,
जड़ - चेतन, चल - अचल की स्थिति,
पर इस क्षण जो दिखता है, जम जाता है ऐसे,
कि जब टूटता है तो खून के आसुं रुलाता है!
पर जीवन तो बहता चला है,
धरती मां की रगों से हमारी रगों में,
हमेशा, बिना रुके!
- नयन
बृहस्पतिवार, 7 मई, २०२०
कोयंबटूर
(9 मई को इस कविता का अनुवाद मैंने अंग्रेजी में किया।)
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