Nayan | WritersCafe.org

Sunday, May 26, 2019

अनंत अफ़सोसों की माला


अनंत अफ़सोसों की माला

मिट्टी का फूटा घड़ा लिए
मैं पानी भरने जाती हूं,
सोचती हूं कि मेहनत का
साकार हुआ होगा फल,
पर देखती हूं फूटे छेदों से
बह गया है सारा जल!

तकिये में हुए छेदों को मैं
सर के नीचे रख सोती हूं,
छुपाए न छुपे, छेदों से
रुई निकल उड़ जाते हैं,
सर को साफ रखने की कोशिश में
सर मैला हो जाता है।

तुम तो एक ही रहते हो पर,
तुम्हारा रूप बदल बदल जाता है।
सोचती हूं मौसम का खेल होगा
(और) सूरज पर भी शक जाता है,
मुझको धरने वाली धरती से पर,
नज़र दूर खड़ी रहती है।

बदलती छवि के धुओं में मैं
ढूंढती फिरती हूं दुआओं को,
बहती नदी में तैरूं ना पर, मैं
(किनारे) बैठ  गिनती हूं सीपों को।
इस पल के मौके को क्यूं दूर
बहने देती हूं समय की नाव में?

मिट्टी को छू लेने की ललक
मन की ही है - मट मेले होने को,
पर खुद को किसी और में
खो देने के डर की झिझक
इतनी है कि, इतना पास आकर भी
बार बार कश्ती को दूर बहने देती हूं।

नयन
१४ अप्रैल, २०१९
कोयंबटूर