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Sunday, September 14, 2025

कर्मफल और उम्मीद का आशियां (Karma Phal aur Umeed ka Ashiyaan)


जैसा किया है करम मैंने,
वैसा ही मिलेगा फल मुझे,
न रहे मुझमें बचकाना भरम,
चाहे कर लूं कोई भी तीरथ धरम!

यह था मेरा ही करम,
जो भुगत रही है वह हरदम,
फल है, है मेरी ही शरम,
है नींव जिंदगी की काफ़ी नरम!

बड़ा पाप किया था मैंने ही,
कि रुलाया था दोस्त को काफ़ी,
अब हमसफ़र की किस्मत फूटी जाय,
लगा रे जबर्दस्त दर्द की हाय!

प्यार को रौंधकर तुम
सुखी न होगे कभी,
जिस कदर दर्द दिया है तुमने,
तड़पाएंगे तुमको भी सभी!

हर दिन मेरे कानों में, सुन,
बजती रहती है यही धुन,
पहन इकतरफा आरोपों का माला,
बढ़ाता हूं मंगल का ही प्याला!

नसीब से मिलता है जीवन में,
साथी जो साथ जिए और साथ मरे,
खोया था उसे नासमझी ने,
दोष चढ़ा जिसपे वह क्या करे!

हां, गलती मुझसे हुई,
कि कर्ण न बन सका मैं,
अफ़सोस रगों में रोज बही,
कि एक और मौका न दे सका मैं!

किस्मत का खेल यह था,
कि दोराहे पर ला खड़ा किया था,
राह एक को ही चुनना था,
असहाय, कुछ कर न सका!

बददुआएं ही हैं, माफ़ी नहीं,
लेकिन फिर भी बदनसीब मैं नहीं,
क्योंकि सौ आंधी अंधेरों में भी
जिंदगी ने दिया एक जुगनू ही!

उसने खुदको मुझमें देकर
बना दिया है मुझको श्वेत,
अकेलापन ने अपनापन पाकर
सींचा उम्मीद के किस्सों की खेत!

अब खुद को न्योछावर करके मैं,
साफ करता अपने दिल का दर्पण,
शांत करूं मैं, शीतल करूं मैं,
हर दर्द को, कर अपना ही तर्पण!

दर्द ने आईना दिखाया है,
जीवन ने जीना सिखाया है,
अब उसमें मैं खुदको देकर,
न भटकूं और हर दर दर!

अक्षों से धो दूं वक्ष कमल,
तौलों मुझको हे नील धवल,
अब और न टालूं कहकर कल,
आज ही हो हर गुरूर का हल!

माटी का तन है मेरा,
हो माटी सा ही मन,
बार बार टूटे फिर बने,
हर कोई पाए ऐसा ही धन!

रंग दूं हर मन को नभ जैसा, 
ले अरुण ऊषा से मैं आशा,
अंगारों और ईंटों से बनाऊं
मैं दुआओं का आशियां!

-- भास्कर घोष 
रवि, 14 सितंबर 2025
सुबह 7 बजे, पटना

(आज हिंदी दिवस है)
(फोटो perplexity द्वारा बनाया गया है)

Friday, September 5, 2025

Life is a scrambled egg


Life is a scrambled egg,
Seldom a perfect bake,
Never a neat poach,
How much ever we coach!

Being born to bonhomie's sake
In unfathomable expectation's stake,
Cursing the blood that courses the vein,
Seldom a shade when it does rain!

That simmers the heat
In a covered copper seat,
Believing the best to come out of it,
But staggered nuisances reveal bit by bit!

Stained to taste with a filtering fee,
But holes let pass the sting of a bee,
Naked amidst sharks and solar flares,
Hoping against hope in the grisly glares!

Rising again after each fateful fall,
A promise that stands divine and tall!
Ninety nines against one may label it heresy,
Still, to be fearless in a forest is one big gee!


-- Bhaskar Ghosh 
Friday, 5th September 2025
9:44 am, Patna

Wednesday, August 13, 2025

जिसके पास तुम हो (Jiske Paas Tum Ho)


जिसके पास तुम हो,
उसके पास ऊपर वाले का रहम है,
एक सच्चे दिल की कसम है,
और बिन मांगे मन्नत की रसम है!

जिसके पास तुम हो,
उसके पास खुदा का नूर है,
अपनापन का मिठास भरपूर है,
क्योंकि गुरूर उससे कोसों दूर है!

जिसके पास तुम हो,
उसके पास साथ चलने की चाह अपार है,
औ' दोस्ती व हिम्मत का भंडार है,
इसलिए तो खूब सारा प्यार है!

जिसके पास तुम हो,
उसके पास खुशनसीबी की दुआ है,
जलते अंगारों में भी उसे मलहम ने छुआ है,
तभी तो सच्चे प्यार का इज़हार हुआ है!

जिसके पास तुम हो,
उसे कभी न मिटने वाला वरदान है,
अनछुआ, खांटी सोने की खान है,
बड़ा ही अनमोल उसका जहान है!

-- भास्कर घोष 
मंगल, 12 अगस्त 2025
रात 11:58 बजे, पटना

(ऊपर दिया गया चित्र perplexity ऐप द्वारा बनाई गई है)

Tuesday, August 12, 2025

সাদা-কালো Sada-Kalo (Black and White)


সাদা দৃষ্টি-পটে দেখা পাই,
একটি কুচকুচে কালো পাখি,
আর কালো প্রেক্ষাপটে ভাসি,
পায়রা সাদা মেলে আঁখি।

জোনাকিরা দেয় আলো,
দেখতে যদি লাগে ভালো,
তখন কি আর লাগে হাহাকার,
রাতের নিস্তব্ধ অন্ধকার?

রোদের ধাঁধানো আলোতে,
যখন মাথা ফেটে যায় ব্যথায়,
তখন কি চায় না শরীর,
একটু ছায়া, একটুকু অন্ধকার?

আর সাড়া শব্দ শূন্য পথে,
এক নিবিড় নিশীথ রাতে,
দুরুদুরু বুক চায় না কি তখন,
জোছনা, চাঁদের আলোর মতন?

মাটিতে তৃষ্ণার্ত অবসাদ
দেখেছে আকাশে আজ,
আসে যেন এক ডানা মেলা
স্বপ্নের ফেরিওয়ালা!

সাদা-কালো তাই মাখা,
জীবনেতে আছে গাঁথা,
মুচকি হাঁসি ও অশ্রু ফোঁটা,
সঙ্গে নিয়ে সিনেমা গোটা!

আবছা আলো, সঘন বাতাস,
মনের মিঠাস, হৃদয়ের হাহুতাশ,
রঙিন তাই চীনেমাটির কাপ-প্লেট,
নিয়ে চলেছে ছায়াছবির সেট!

-- ভাস্কর ঘোস
মঙ্গল, 12 আগস্ট 2025
দুপুর 1:30, পাটনা

Tuesday, August 5, 2025

फिर से छूना है वो मुकाम Phir Se Chhuna Hai Wo Mukam



फिर से छूना है वो मुकाम,
जिसे छोड़ आए थे हम।

जिसका हो पूरा का पूरा मयखाना,
क्या अफसोस उसे चंद गिलासों का?

जिसने समंदर में खाया हो गोता,
नहीं डरता कतई वह चुल्लुओं से!

और जो मर कर के लौटा हो वापस,
कैसे घबराए अब वह जिंदगी से?

काफ़ी देर ठहर चुका तंग स्टेशन पे,
अब फिर से चलने की मैंने ठानी है!

ठेस वाली जिंदगी अब खुद को कोसती है,
हरकतों की भी एक हद होती है!

अब बहुत हो चुका है सिरदर्द मेरा,
भनभनाते उल्लुओं से अब ऊपर उड़ना है!

गवारों की गलियों में
अब और नहीं मुझको रहना है!

पैसे से तालीम, और पद से कद मापने वालों को
उन्हीं की भाषा में जवाब-ए-जबरदस्त देना है!

ठीक है कि फिर लहरों से लड़ना होगा,
लेकिन समंदर तो अपना होगा!

सुकून और सेवा के लिए छोड़ा था आसमां,
लेकिन अब टूट चुका है भ्रम का समां!

चीलों व चमगादड़ों से इतना बड़ा है होना,
कि कभी सपने में भी ये छू न सके सीना!

सो, अब न चाहूं मैं नींद चैन की,
अब न करूं मैं बातें न्याय की।

जब तक लांघू न वो मुकाम,
जिसे छोड़ आए थे हम।

-- भास्कर घोष
मंगल, 5 अगस्त 2025
शाम 7:10 बजे, पटना

(फोटो का आभार: गूगल जेमिनी)

Saturday, August 2, 2025

ज़िंदगी के किस्से Jindagi Ke Kisse

लोग सोचते हैं 
कि यह चीज़ मेरी है,
मैं इसका मालिक हूं।

पर असल में,
यह एक खेल है
जो दिमाग में चलता है।

क्योंकि हम ख़ुद को
जिस चीज़ का मालिक मान बैठते हैं,
एक दिन वही हमारा मालिक बन जाता है।

कब तख्ता पलट की घड़ी आ जाती है,
हमें पता ही नहीं चलता,
देखते देखते हम गुलाम हो जाते हैं।

यह मालिक-गुलाम वाला खेल
एक सिनेमा की तरह है,
लगता है कि है, पर सच नहीं!

जैसे हम सिनेमा के दृश्यों पे 
हंसते हैं, रोते हैं, डर जाते हैं,
वैसे ही ज़िंदगी के किस्से होते हैं।

हम कहानियों पे भावुक हो सकते हैं,
पर उन्हें सच व ठोस मान बैठना
बेवकूफी नहीं तो और क्या है?

पैदाइश और परवरिश, 
दोनों में फर्क है -
एक हो चुका, दूसरा अभी भी जारी है।

इसीलिए तो यह एक मौका है -
खुद को जानने का,
सच को पहचानने का।

ख़ुद को खोजने का
सफ़र है यह जिंदगी,
काबू करने का कोई जंग नहीं!

-- भास्कर घोष
शनिवार, 2 अगस्त 2025
सुबह 9:55 बजे, पटना

(फोटो के लिए आभार: https://en.m.wikipedia.org/wiki/35_mm_movie_film)

Saturday, July 26, 2025

Dumb


Life gave enormous chance
To me to pause and get past,
What was an endless haste,
But to me, all I wanted it to last!

My life's boat swam aghast,
Seemed all, such a power cast,
Winds pushing at the mind's mast
Oh! how I lost my mental chaste!

I swiveled left and I swiveled right,
In search of that missing height,
That it dazzled me day and night,
All I got was a laughing plight!

Dreamy had my vision become,
That I wandered so away from home,
Sans sense, listened to all random,
And acted I in clouded epitome!

Wonder what end it hit,
That I lacked my moment to sit,
And I happily bit
What they gave me to eat!

-- Bhaskar Ghosh 
Sat, 26th July 2025
3:40 pm, Patna

(image generated from Google Gemini)