जैसा किया है करम मैंने,
वैसा ही मिलेगा फल मुझे,
न रहे मुझमें बचकाना भरम,
चाहे कर लूं कोई भी तीरथ धरम!
यह था मेरा ही करम,
जो भुगत रही है वह हरदम,
फल है, है मेरी ही शरम,
है नींव जिंदगी की काफ़ी नरम!
बड़ा पाप किया था मैंने ही,
कि रुलाया था दोस्त को काफ़ी,
अब हमसफ़र की किस्मत फूटी जाय,
लगा रे जबर्दस्त दर्द की हाय!
प्यार को रौंधकर तुम
सुखी न होगे कभी,
जिस कदर दर्द दिया है तुमने,
तड़पाएंगे तुमको भी सभी!
हर दिन मेरे कानों में, सुन,
बजती रहती है यही धुन,
पहन इकतरफा आरोपों का माला,
बढ़ाता हूं मंगल का ही प्याला!
नसीब से मिलता है जीवन में,
साथी जो साथ जिए और साथ मरे,
खोया था उसे नासमझी ने,
दोष चढ़ा जिसपे वह क्या करे!
हां, गलती मुझसे हुई,
कि कर्ण न बन सका मैं,
अफ़सोस रगों में रोज बही,
कि एक और मौका न दे सका मैं!
किस्मत का खेल यह था,
कि दोराहे पर ला खड़ा किया था,
राह एक को ही चुनना था,
असहाय, कुछ कर न सका!
बददुआएं ही हैं, माफ़ी नहीं,
लेकिन फिर भी बदनसीब मैं नहीं,
क्योंकि सौ आंधी अंधेरों में भी
जिंदगी ने दिया एक जुगनू ही!
उसने खुदको मुझमें देकर
बना दिया है मुझको श्वेत,
अकेलापन ने अपनापन पाकर
सींचा उम्मीद के किस्सों की खेत!
अब खुद को न्योछावर करके मैं,
साफ करता अपने दिल का दर्पण,
शांत करूं मैं, शीतल करूं मैं,
हर दर्द को, कर अपना ही तर्पण!
दर्द ने आईना दिखाया है,
जीवन ने जीना सिखाया है,
अब उसमें मैं खुदको देकर,
न भटकूं और हर दर दर!
अक्षों से धो दूं वक्ष कमल,
तौलों मुझको हे नील धवल,
अब और न टालूं कहकर कल,
आज ही हो हर गुरूर का हल!
माटी का तन है मेरा,
हो माटी सा ही मन,
बार बार टूटे फिर बने,
हर कोई पाए ऐसा ही धन!
रंग दूं हर मन को नभ जैसा,
ले अरुण ऊषा से मैं आशा,
अंगारों और ईंटों से बनाऊं
मैं दुआओं का आशियां!
-- भास्कर घोष
रवि, 14 सितंबर 2025
सुबह 7 बजे, पटना
(आज हिंदी दिवस है)
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