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Tuesday, August 5, 2025

फिर से छूना है वो मुकाम Phir Se Chhuna Hai Wo Mukam



फिर से छूना है वो मुकाम,
जिसे छोड़ आए थे हम।

जिसका हो पूरा का पूरा मयखाना,
क्या अफसोस उसे चंद गिलासों का?

जिसने समंदर में खाया हो गोता,
नहीं डरता कतई वह चुल्लुओं से!

और जो मर कर के लौटा हो वापस,
कैसे घबराए अब वह जिंदगी से?

काफ़ी देर ठहर चुका तंग स्टेशन पे,
अब फिर से चलने की मैंने ठानी है!

ठेस वाली जिंदगी अब खुद को कोसती है,
हरकतों की भी एक हद होती है!

अब बहुत हो चुका है सिरदर्द मेरा,
भनभनाते उल्लुओं से अब ऊपर उड़ना है!

गवारों की गलियों में
अब और नहीं मुझको रहना है!

पैसे से तालीम, और पद से कद मापने वालों को
उन्हीं की भाषा में जवाब-ए-जबरदस्त देना है!

ठीक है कि फिर लहरों से लड़ना होगा,
लेकिन समंदर तो अपना होगा!

सुकून और सेवा के लिए छोड़ा था आसमां,
लेकिन अब टूट चुका है भ्रम का समां!

चीलों व चमगादड़ों से इतना बड़ा है होना,
कि कभी सपने में भी ये छू न सके सीना!

सो, अब न चाहूं मैं नींद चैन की,
अब न करूं मैं बातें न्याय की।

जब तक लांघू न वो मुकाम,
जिसे छोड़ आए थे हम।

-- भास्कर घोष
मंगल, 5 अगस्त 2025
शाम 7:10 बजे, पटना

(फोटो का आभार: गूगल जेमिनी)

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