लोग सोचते हैं
कि यह चीज़ मेरी है,
मैं इसका मालिक हूं।
पर असल में,
यह एक खेल है
जो दिमाग में चलता है।
क्योंकि हम ख़ुद को
जिस चीज़ का मालिक मान बैठते हैं,
एक दिन वही हमारा मालिक बन जाता है।
कब तख्ता पलट की घड़ी आ जाती है,
हमें पता ही नहीं चलता,
देखते देखते हम गुलाम हो जाते हैं।
यह मालिक-गुलाम वाला खेल
एक सिनेमा की तरह है,
लगता है कि है, पर सच नहीं!
जैसे हम सिनेमा के दृश्यों पे
हंसते हैं, रोते हैं, डर जाते हैं,
वैसे ही ज़िंदगी के किस्से होते हैं।
हम कहानियों पे भावुक हो सकते हैं,
पर उन्हें सच व ठोस मान बैठना
बेवकूफी नहीं तो और क्या है?
पैदाइश और परवरिश,
दोनों में फर्क है -
एक हो चुका, दूसरा अभी भी जारी है।
इसीलिए तो यह एक मौका है -
खुद को जानने का,
सच को पहचानने का।
ख़ुद को खोजने का
सफ़र है यह जिंदगी,
काबू करने का कोई जंग नहीं!
-- भास्कर घोष
शनिवार, 2 अगस्त 2025
सुबह 9:55 बजे, पटना
(फोटो के लिए आभार: https://en.m.wikipedia.org/wiki/35_mm_movie_film)
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