यह दुनिया भी उतनी पत्थर नहीं,
जितनी शायद दिखती है,
मन की आंखों से देखने पर
यह भी बदल सकती है।
समय बदल रहा है,
लोग बदल रहे हैं,
परिस्थितियां बदल रहीं हैं,
भला ही है, परिवर्तन हो रहा है।
यही तो प्रमाण है
कि यहां सबकुछ उतना हार मांस का नहीं!
यह दोष हमारे नज़र का ही तो है
कि हम सारे गुणों को ठोस मान बैठे!
समय के इस दरिया में
बुलबुले उभर कर आते हैं,
पर असीम करुणा की गोद में
क्षणिक सुख के बाद, समा भी तो जाते हैं।
कोई यहां कुछ बांध कर लाया नहीं,
कोई यहां साकार तो आया नहीं,
यूं ही लेन देन की रीत में
रंगों का खेल चला जा रहा है।
जो कल था, वह आज कहां?
आज का, कल रहेगा ही - यह भी अटल नहीं!
तो जिसके लिए जनम मरण की कसमें खाते हो,
कल बदल गया तो किसको मुंह दिखाओगे?
समय के चक्के पर घिसे जा रहे हो,
यही सोच कि अडिग हो, अच्छे हो, सही हो, सच्चे हो!
जिस दिन इस कफ़न का भार उतार दिया,
उसी वक्त आज़ाद हो जाओगे!
तजुर्बे के आगे उसूलों की क्या औकात!
पर सही गलत के तराज़ू में हमने
जीवन का जीना हराम कर दिया है!
इसीलिए तो खूब ही कहा है किसी ने -
इस धरती पर आया जो है,
ढूंढा उसने उसको कब है!
बेहती गंगा को भुलाकर,
चुल्लू में खोजा कल है!
-- नयन
बुधवार, २५ नवंबर २०२०,
सुबह ४ बजे,
पटना
(चित्र यहां से गृहित है - https://commons.m.wikimedia.org/wiki/File:Waterfall_in_plitvicka_romanceor_5.jpg)
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