दो नन्ही सी जान!
कहां है, खुद वो कौन है,
क्यूं ही आयी, लाया भी कौन है,
इन सबसे अनजान!
पता नहीं क्यूं
छोड़ कर चली गई थी
उन्हें उनकी मां!
दो नन्ही सी जान।
एक नन्ही चीरी
चली गई छोड़
बहुत ही जल्द,
एक रात भी
न रुक पाई थी वह!
बेजाबान, आंखें मूंद
ही चली गई छोड़!
उसकी हमउम्र जुड़वा
रह गई थी अकेली,
मुंह फाड़, अंधेरे में,
अपनी नाज़ुक जीवन का
सहारा ढूंढ़ रही थी,
मां की ममता की
आस में थी वह!
बेबस, नासमझ, हमने
नन्ही सी चीरी को
दिया एक बनाकर घोंसला,
पर दुविधा में जो भी थोड़ा
दिया उसे खाने को,
वो उसे ले न सकी!
कमजोर शरीर में
नाज़ुक सी सांस
शांत हुई जा रही थी,
धड़कनें शिथिल पड़ रहीं थीं,
चहचहाना बंद हो गया था,
खाने की हिम्मत न थी अब,
वह बहुत चुप हो गई थी!
सुबह के सूरज की
पहली लाली ने
दिल पे पत्थर रख दिया!
आंखों से टपकती आसुओं
को पता चल चुका था,
मां के बिना नया जीवन
नहीं पनप सकता!
नन्ही सी जान की
एक दिन की जिन्दगी
हमसे अलविदा कह चुका था!
-- नयन
बृहस्पतिवार, २४ सितंबर २०२०
कोयंबतूर
(नितेश जी के मुख से सुनी ये एक सत्य घटना पे लिखी)