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Tuesday, August 20, 2013

aasbe kobe (when shall you come)



আসবে কবে?

সেদিন যবে দেখেছিলেম তোমায়,
মুক্ত গগনের ওই আলোয়ে!
মিশে গেলে তুমি চিরকালই যবে,
প্রভাতের ওই সাগর খেলায়ে!


সেদিন যবে দেখেছিলেম তোমায়,
নদী-তীরের গাছের পাশে!
শেষ
দেখা তব, আর কি পাব -

চোখের হাঁসি মনের প্রকাশে?


সেদিন যবে গেছিলে যে সাথে,
মাস্টারমশাই
-এর পাঠ্শালায়ে!

পাখির
ডাকে, হাওয়ার ছোঁওয়ায় -

দেখা দাও ফের শুন্য দেবালয়ে!


সকাল বেলা মিষ্টি ফুলের গন্ধ নিয়ে,
কবে
যে তুমি ঢুকে যেতে আমার ঘুমের মাঝে!

উঠিয়ে
তুলে বলতে - দেখ কত আলো!

আবার
প্রভাত আসবে কবে, তেমনি ভালো?


দুপুর বেলার ঝলকানি রোদ,
পাতার
ফাঁকে টুপটুপিয়ে পড়ত যবে ভূয়ে!

তেমনি সেদিন আসবে কবে, লাগিয়ে 
ছোঁয়া আমার মনের প্রাঙ্গনে?


সন্ধ্যা বেলাযে ধুপ-ধুনো নিয়ে,
পাখিরা
যখন ঘুমিয়ে পড়ত শুয়ে,

তোমার
আওয়াজ শুনতে পেতাম শঙ্খ-ধ্বনির ফাঁকে,

আসবে
তুমি আবার কবে সেই রূপকথার মাঝে?
নয়ন
11:19 am,
Fri, 5th Nov 2010
Madhapur, Hyderabad
India
 


© Bhaskar Jyoti Ghosh [Google+, FB]
 

Sunday, August 11, 2013

Sir Kata Musafir - The Headless Traveller

"सर कटा मुसाफिर" (Sir Kata Musafir or the Headless Traveller represents a man who has given up his attachments to bias through his perception, sight, hearing, emotion, and thoughts. He, thus, walks without a source (transmitter) and target (receiver) of all bias, of all evil, of all pain - his head.

I have used the famous headless statue of King Kanishka. While it may not be appropriate to put Kanishka's image as the headless traveller, given that he wielded one of the greatest and largest empire extending from India well up to Iran and China; at the same time, it may also be appropriate given that the head of the statue was missing when it was discovered, making the man depicted in the statue look like a warrior-traveller, who represented an unbiased dutiful attitude with his headless appearance!)



सर कटा मुसाफिर


 
गुमनाम रातों की गलियों में
घूमता है वह -
सर कटा मुसाफिर!

अंधेरे के साये में
जब रौशनी गायब सी लगती है -
शैतान के क़दमों की आहट
गिनता है वह -
सर कटा मुसाफिर!

उमंगों की चीखें
और गलतियों की आहें -
कभी बहा के ले जातीं हैं,
खुशनुमां कश्ती को किनारे से दूर!
शुक्र है, सुन नहीं पाता है वह -
सर कटा मुसाफिर!

ज़माने का दस्तूर,
और इंसानियत का मुखौटा -
रौशनी में चमकता तो खूब!
जब दिन का सूरज उसे
भेद नहीं पाता!
और आँखें देख नहीं पातीं कभी -
नंगी रातों में बेखौफ-बेनकाब उसका रंग!
शुक्र है, बेनजर है वह -
सर कटा मुसाफिर!

लोग अनजान ही अच्छे थे!
लोग अनजान ही अच्छे हैं!
नजदीकी दागों को सामने ले आती हैं,
दिल का नाम लेकर सुकून पी जाती हैं!
इसलिए बेख़बर, सोया, चलता है वह -
सर कटा मुसाफिर!

लोग मजाक़ करते तो हैं,
पर कभी दर्द भी देते हैं!
मजाक़ पर हँसते हैं कभी,
और कभी दर्द भी लेते हैं!
इसलिए इनसे हट, अलग -
राह पर चलता है वह -
सर कटा मुसाफिर!

खामोश से समां में -
तूफान की उम्मीद होती,
मासूम से कटोरे में -
'गर वह उफान दिखती!
पानी से दूर, सूखे राहों पर चलता है वह -
सर कटा मुसाफिर!

कश्ती को बांधती है ज़ंजीरें ज़रूर -
पर दम भी घूंट जाता है उनसे!
मोतियाँ बिखर जातीं हैं, धागे के बिन -
पर पिंजरे के बाहर ही उड़ती है चिड़ी
अपनी असली उड़ान!
अज़ाद से सपने, ' गुलाम से दिल, से दूर है वह -
सर कटा मुसाफिर!

लोग दिमाग लगाते हैं खूब,
गलतियों पर अपनी उँगलियाँ भी नचाते हैं खूब!
फिर भी, छोटीं मुसीबतों के चौखट पर
बहुत से नगमें ठोकर खा जाते हैं!
दिल दिमाग का ही रंग है -
इसलिए तो बिन सर, फिरता है वह -
सर कटा मुसाफिर!
नयन 
10 am, 26th Jan 2011
Madhapur
Hyderabad, India
© Bhaskar Jyoti Ghosh [Google+, FB]

[Image source: http://www.exoticindiaart.com/artimages/BuddhaImage/kanishka_sm.jpg]