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Friday, March 21, 2025

साहिल से समंदर तक (Sahil se Samandar tak)

तू ज़िंदा है
तो क्या गम है?
क्या ये कम है -
जो तेरी आंखें नम है?

सीने में सांस है,
तभी तो आस है।
तमन्ना से विश्वास तक,
जीने का जोर तेरे पास है!

जब तक है सीने में
धड़कनों की आवाज़,
तब तक होते रहे तेरी
कोशिशों की आगाज़!

जरूरत से ही हुआ
हमेशा हर एक आविष्कार,
जद्दोजहत से ही है खुला
हमेशा क़िस्मत का द्वार।

जो जोख़िम न उठाए तू -
जोते माटी का कण कण,
तो हो कैसे बलशाली
तेरा जीवन तन मन?

हर पल तेरे पास है बोल,
समंदर का क्या लगाऊं मोल?
किनारे की कश्ती को ज़रूरत नहीं,
तू तो बूंद है, सागर ही तेरा घर है!

तैरने के लिए ही तू थी बनी,
आज कैसे क्यूं भूल गयी?
लहरों पे चलना ही तो थी
अफसाना नहीं, फ़ितरत तेरी!

तो उठ आज बुलंदी से
हो जा खड़ी, तू हो जा खड़ी।
बेख़ौफ़ तेरे बवंडरों से,
जूझने की अब आयी घड़ी!

तू नहीं है अबला,
हवाओं में उड़ा दे डर,
साहिल से समंदर का
तू आज रुख़ कर!

-- भास्कर घोष
शुक्रवार, 21 मार्च 2025
दोपहर 3:33, पटना

#PoetryDay



(image source: https://www.fizdi.com/beach-ocean-waves-prt_7809_66959-canvas-art-print-30in-x-24in)